मध्यप्रदेश के मंत्रीगण, डॉ. गोविंद सिंह, प्रियव्रत सिंह और जीतू पटवारी अभिनंदनीय काम कर गुजरे। विधायकों पर सरकारी पैसा फूंकने के प्रस्ताव का इन्होंने ऐसा पुरजोर विरोध किया कि कमलनाथ को यह प्रस्ताव खारिज करना पड़ गया। वरना खाली खजाने और भरी-पूरी कर्ज पुस्तिका के बीच पिस रहे मध्यप्रदेश में आमदनी चवन्नी, खर्चा रुपैया वाला हिसाब हो जाता। क्योंकि इस प्रस्ताव में विधायकों को लग्जरी गाड़ी खरीदने के लिए दी जाने वाली कर्ज की राशि 10 लाख रुपए से बढ़ाकर 25 लाख रुपए कर दी जाती। इसी तरह मकान खरीदने हेतु कर्ज की सीमा 25 लाख से बढ़ाकर पचास लाख तक कर दी जाती। इसका विरोध किया ही जाना चाहिए था।

हालांकि डॉ. विजयलक्ष्मी साधौ द्वारा इस प्रस्ताव का समर्थन करने में भी चौंकने जैसी कोई बात नहीं है। जिन्होंने दिग्विजय सिंह सरकार में साधौ को चिकित्सा शिक्षा विभाग का संचालन करते देखा था, वह आसानी से समझ सकता है कि माले मुफ्त-दिले बेरहम तो संस्कृति मंत्री की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा पहले से ही बना हुआ है। लिहाजा उनके स्तर से तो इस प्रस्ताव को आंख मूंदकर मंजूरी मिलना ही थी।
प्रदेश की आर्थिक स्थिति किसी से भी नहीं छिपी है। उस पर वह लाखों किसान अब तक ‘वक्त है बदलाव’ को सही तरीके से लागू होते देखने का इंतजार कर रहे हैं, जिनके कर्ज अब तक माफ नहीं किये गये हैं। याद दिला दें कि यह पहला आदेश था, जो बीते साल दिसंबर में कमलनाथ ने बतौर मुख्यमंत्री जारी किया था। इसके बाद से सरकार दनादन कर्ज पर कर्ज लिये जा रही है। यदि कल वाला प्रस्ताव मंजूर कर लिया जाता तो साफ था कि यह सरकार कर्ज के मामले में चार्वाक के ‘ऋणम कृत्वा, घृतम पीवेत’ वाले चलन पर ही काम कर रही है। इसका मतलब यह नहीं कि कैबिनेट की बैठक के घटनाक्रम का श्रेय नाथ को दे दिया जाए। वह सख्त फैसले लेना तो दूर, किसी को ना कहने तक की हिम्मत का मुख्यमंत्री के तौर पर एक भी बार परिचय नहीं दे पाये हैं। गोविंद सिंह जैसे धाकड़ और पटवारी तथा प्रियवत सरीखे युवा एवं तेजतर्रार चेहरों ने वह कर दिया है, जिसकी राजनीतिक जीवन में कम ही मिसाल देखने को मिलती है।
लेकिन उनका क्या, जो इस अहम मसले पर मूकदर्शक बने रहे। यदि वे विरोध में थे तो उन्हें खुलकर अपनी बात रखना थी। इससे प्रदेश में यह संदेश जाता कि सरकार के कितने मंत्री वाकई जन-हितैषी सोच रखते हैं। इसलिए यह चुप्पी अक्षम्य है। खुद उनकी सियासी छवि के लिए अच्छी नहीं है। और वो तो लानत के पात्र हैं, जो मन ही मन इस प्रस्ताव के पारित होने की अभिलाषा पाले हुए थे।
विधायक तो जनता की सेवा की कसम खाते हुए चुनाव लड़ते हैं। तो फिर ऐसा क्या हो जाता है कि चुनाव जीतते साथ ही उनका दिमाग आसमान पर पहुंच जाता है और सरकारी पैसे से हरसंभव ऐश करने का भूत उनके सिर पर चढ़कर नाचने लगता है! माना कि सियासत अब व्यापार में तब्दील हो चुकी है, लेकिन इस फितरत का ऐसा नंगा नाच तो न किया जाए कि मतदाता को अपने मताधिकार के प्रयोग पर ही शर्म आने लगे। वह यह सोचने लगे कि अपने हित के लिए उसने जिन्हें वोट दिया था, वो पहले खुद के हित साधन में ही जुट गये हैं।